Saturday, September 19, 2009

!! THE DILLEMA OF BEING ECCENTRIC !! (To Be Lost To Find).



                                 एक काल्पनिक व्यंग्य
 जैसा की शीर्षक " To be lost to find" से पाठकगणों को इसके मूल भाव को तलाशने में कठिनाई जरूर हो रही होगी लेकिन इसमें घबराने की जरूरत नहीं क्योंकि व्यंग्य वाक्यों को लोग तीसरी आँखों से पढना पसंद करते है इसलिए इसका यथार्थ  आपको इस गद्य का अद्यतन अध्ययन करने के बाद ही सुस्पस्ट हो पायेगा !

                                        कभी-कभी जब हम किसी जाने-अनजाने लोगो से मिलते है तो ऐसा प्रतीत होता है की वह एक खोये-खोये से रहने वाला व्यक्ति है जबकि वास्तविकता तो यह है की वह (ऐसा सोचने वाला) खुद खोया रहता है या फिर इस कटु सत्य को खुद के लिए स्वीकार करने के लिए सहमत नहीं हो पाटा है या फिर खुद को ही ठीक से पहेचान नहीं पा रहा होता है और न केवल वह बल्कि हम सभी खोये होते है अपनी रंगीन या सादी दुनिया में केवल फर्क इतना होता है की कुछ लोग कम खोये होते है और शेष खोये-खोये-खोये......से रहते है! खोना तो मनुष्य का सहज-असहज स्वाभाव है, इसके बिना तो वह अपने सफल जीवन की परिकल्पना भी नहीं कर सकता!

                                              लेकिन अब प्रष्न ये उठता है की यह "खोना" होता क्या है? तो मै आपको बता देता हूँ की ये खोना जिश सन्दर्भ की बात मै कर रहा हूँ का कतई सम्बन्ध कुछ अपना कीमती (जैसा की कलियुग मै ज्यादातर लोग यही समझते है) खो जाने से नहीं है! यहाँ अपना का मतलब उससे है जिसे सिर्फ आप महसूश कर सकते है, ये आपके अन्दर अंतर-निहित है और दूसरा अपना का मतलब कुछ वैसे वस्तु से है जो आपके करीब है, उसे आप छु सकते है (material-wellbeing)! तदनुसार मेरा तो खोने का सम्बन्ध कुछ खो जाने से नहीं बल्कि कुछ पाने के लिए कुछ आतंरिक खो जाने से है!

                                           अगर हम अपने इर्द-गिर्द के सामजिक वातावरण पर गौर फरमाते है तो पाते है की जो लोग कुछ पाने के लिए कुछ खोये से रहते है और पाने मै असफल हो जाते है तो या तो वे मानसिक रूप से विछिप्त हो जाते है या फिर समाज उन्हें पागल करार देता है! क्योंकि खोये-खोये से रहने वाले आम नहीं होते वो इमली होते है और बबूल के काँटे की भाति समाज को चुभते रहते है!

                                    हर लिखावट मै लेखक के अपने अनुभव की सच्चाई छुपी होती है और लेखक के उस सच की अनुभूति करने से पाठक लेखक के सोच को समझ पाटा है और वो अनुभव घटित या काल्पनिक हो सकते है यह लेखक के दूरदृष्टिता पर निर्भर करता है! हमें पता है की समाज मै आम लोगो की संख्या ज्यादा होती है तभी तो वो आम है और तभी तो समाज एक भीड़-भेड़ तंत्र है वर्ना लेखक की तरह सभी समाज के लोग इमली और बाबुल के कांटो की तरह होते और एक दुसरो को चुभते रहते तो  फिर सायद किसी के खोने न खोने का प्रश्नचिह्न ही नहीं खड़ा होता ना ही सवालिया निसान उठते! और सायद  तभी तो समाज लेखक (इमली लोगो) के सोच को समझ नहीं पाता है और उन्हें वो लोग खोये-खोये से रहने वाले पागल या बेवकूफ समझ लेते है! लेकिन मुर्ख कौन? ये हमारे मानस पटल पर सवालिया निसान छोड़ जाते है!

                              अगर हम उदहारण की सुरुवात स्वामी विवेकानंद से करते है तो पाते है की जीवन के १७ वे साल तक हमेशा खोये-खोये से रहे यहाँ तक की वो तो कुछ दिनों तक अपने कमरे मे पड़े रहे और सुसुप्ता अवस्था मे खोज मे खोये रहे ! उस समय तो समाज ने उन्हें असहज समझा!
    माननीय पूर्व राष्ट्रपति ए पि जे अब्दुल कलाम के साथ भी कुछ ऐसी ही स्थिति है!

आइंस्टाइन ने जब एक सेब के पेड़ से सेब को निचे गिरते हुए देखा तो उसके मन मे एक प्रष्न खड़ा हुआ की ये सेब निचे ही क्यों गिरा ऊपर क्यों नहीं गया ये बात समाज ने सुनकर उन्हें अपने मजाक का पात्र बनाया लेकिन जब उन्होंने  " Law of Gravitation" प्रतिपादित किया तो सायद सबके सर शर्म से घूक गए और तभी तो आइंस्टाइन ने कहा था की मै चाहता हूँ की समाज मेरा साथ देने से मुकर जाये क्योंकि उस समय मै उस काम को खुद अंजाम दे देता हूँ! बस जरुरत है

सच्ची लगन की और सोयी  हुई उर्जा को खोकर जगाने की!

            When we look outside, we dream
             When we look within, we awaken ourselves!! 
   
लेखक John Nash एक महान mathematician जिसने Nash equilibrium दिया एवं  noble prize भी जीता  से काफी  प्रभावित  है क्योंकि john Nash भी हमेशा खोये-खोये  से रहे वे schizophrenia से ग्रसित  हुए क्योंकि उनकी सोच ही कुछ ऐसी थी और अपने सोच को वास्तविक रूप देने के लिए schizophrenia का सिकार होना  उनकी मजबूरी थी!

  He stated 'i do not like the people because people do not like me'

लेकिन जब उन्होंने अपने काम का वास्तविक अंजाम  दिया तो सायद  सभी लोगो  ने उन्हें पसंद  किया!क्योंकि
 समाज आपके जीवन का मूल्यांकन अंत मे आप कितने सफल है से करती है!
    
एक महान अर्थसास्त्री जो छः महीनो तक अपने घर के साथ और बाकी के छः महीनो इन सब से दूर अकेली अवस्था  मे रहकर अपने काम मे व्यस्त रहता  था तो क्या उसका यह अकेलापन  एक सूनापन  नहीं है जो कुछ पाने के उदेश्य  से किया जा रहा है  और सायद  तभी तो  वह महान कहलाया और लोग महान कहलाते है!

Adam Smith जिन्हें अर्थासास्त्र का जनक माना जाता है, He suffered from 'absense mindness' throughout his life. और Absense mind का मतलब सायद खोये खोये रहने से ही तो है! जो भीड़ मे भी अकेला होता है, समाज के साथ रहकर भी अपने आप मे खोया रहता है और अपने लक्ष्य के प्रति हमेशा अग्रसर रहता है क्योंकि समाज की सुने तो सायद अपने लक्ष्य प्राप्ति के मार्ग से भटक जाए!

         यहाँ मै एक छोटा सा द्रिस्तांत आपके समक्ष रखना चाहूँगा;

एक बार बाप और बेटे अपने एक कमजोर घोड़ी के साथ गंतव्य की और प्रस्थान कर रहे थे, उस घोड़ी पर एक समय मे सिर्फ एक लोग ही बैठ सकते थे, बाप घोड़ी पर बैठा हुआ था कुछ पथिकों ने व्यंग्य किया कैसा बाप है बेटा पैदल चल रहा है और बाप घोड़ी पे मजे ले रहा है, बाप उतर गया और बेटे को घोरी पे बिठा दिया आगे कुछ और पथिक मिले उन्होंने भी व्यंग्य कसने मे कोई कोताही नहीं बरती की कैसा बेटा है खुद बैठा हुआ है और बाप पैदल चल रहा है, आगे जाकर दोनों ही घोड़ी के साथ पैदल पगडण्डी भरने लगे, आगे कुछ महानूभाओ ने भी उन्हें लज्जित करने से नहीं चुके और बोले कितने बेवकूफ लोग है जो घोड़ी के होते हुए पैदल यात्रा कर रहे है! (Shame on these people).

          तो खोये से हुए पाठक ये समाज है, एक बहुरंगी और बिचित्र दुनिया, सबको अपने सोचने का एक नजरिया होता है, और जरुरी नहीं की तुम्हारे सोच को दूसरा भी समझ सके,तुम्हारे सोच को तुम्हारे नज़रिए से soche और न ही तुम्हारे पास समाज को समझाने का वक़्त है! और यही misunderstanding, misconception, dillema और  confusion का वजह होता है!

"we see the world the way we are and not the way it is, Everything depends on your prospective of thinking"

इसीलिए तो सुनो सबकी लेकिन करो अपनी, अपने अंतरात्मा की आवाज़ को सुनो जो कभी झूठ नहीं बोलता, तदापि इस आवाज को सुनने के लिए अपने आप मे खोने की ज़रुरत होती है, अपने पात्र की पात्रता को बढाने की ज़रुरत होती है! हम खुद नहीं जानते की मै कौन हूँ, हम अपने अन्दर छुपी हुई असीमित उर्जा को पहेचान नहीं पाते और जिस दिन जान ले उस दिन कुछ भी असंभव नहीं होगा! जैसा की आप लोगो को भी ज्ञात होगा की इस संसार मे किसी भी व्यक्ति ने अपने दिमाग का १० वा हिस्सा भी इस्तेमाल नहीं कर पाया है! लेकिन इन सबके लिए अध्यात्म की भासा मे अपनी 'kundaliya shakti' जगाने की ज़रुरत होती है और इसे के लिए अपने कर्मिन्द्रियों तथा ग्यानिन्द्रियों पर अंकुश लगाने अत्यंत ही आवश्यक है, मन बचन और कर्म के बिच सामंजस्य बनाने की ज़रुरत होती है, योग और प्राणायाम इसमें सहायक सिद्ध होते है! और आपको क्या लगता है की ये सब इतना आसान है इन सबके लिए गहरी चिंतन और मनन की ज़रुरत होती है, अपने अंदर खो कर झाकने के कला की ज़रुरत होती है!

वैसे मैंने अपने दुसरे Article " The mind and its control: the pursuit of eternal happiness" मे इसकी बृहद चर्चा की है!

                               कुछ काल्पनिक पात्रो पर ध्यान देंगे जैसे की देल्ही-६ का खोये-खोये से रहने वाला पात्र (जिसे समाज ने पागल करार है) फटेहाल  मे सबको आइना दिखाते चलता  है और लोगों को याद दिलाता  है ' पहेचान  अपने आप को अपने अन्दर छुपे इंसान को और निकाल दो बाहर उस सैतान को  ' लेकिन भीड़   को इतनी समझ ही कहा है!
                              या फिर फिल्म तारे ज़मीन पर का वह बच्चा जो हमेशा खोया-खोया सा रहता था लोग उसे मुर्ख  समझते  थे लेकिन उसके अन्दर छुपी  हुई कला  को किसी ने नहीं देखा!

               यदि हम कालांतर तथा वर्त्तमान पर नज़र डालते है तो पाते है की ऋषि-महर्षि सत्य की खोज मे हमेशा खोये-खोये से और शांत रहे है, वो सूनापन ही तो है जो पुण्यात्मा को समाधि मे खो जाने की शक्ति देता है! या फिर फिर स्वयं भगवान् जो खुद हमेशा खोये होते है, चाहें वो बुध, महावीर, क्रिस्ट, पैगम्बर हो या फिर शिव या विष्णु!

                एक कवी भी तो जब कुछ लिख रहा होता हो तो वो भी तो खोया हुआ ही न होता है तभी तो कहते है 'जहा न जाये रवि तहा जाए कवी'! हम सभी बिद्यार्थी है और सायद हम सभी को ही ज़िन्दगी मे कभी न कभी खोने का मौका ज़रूर मिला होगा, सिर्फ एक अनुभूति की ज़रुरत है इसे सोचने के लिए! साधू हो या साराबी, राजा हो या फिर रंक और फकीर, रोगी और भोगी हो या फिर एक योगी यह सभी ही तो एक सोच मे खोये से हुए होते है! कभी-कभी हमारे पास अपने बिचार को ब्यक्त करने के लिए अभिव्यक्ति नहीं होती उस समय भी तो हमारी स्थिति कुछ ऐसी ही होती है न! तो फिर यह सामजिक सोक कैसा?

 पाठक गड़ यहाँ ध्यान दे की लेखक अपनी तुलना कतई नहीं ऊपर वर्णित लोगो से करना चाहता है और ना ही उन लोगो की तरह बनने की तमन्ना रखता है बस वह तो इतना बताना चाहता है की खोना मनुष्य का एक सहज स्वाभाव है और समाज के आम लोग इसे असहेज ना समझे, खोना हमारा यथार्थ है यही तो सफल जीवन का सोपान है! दुनिया के जितने भी सफल लोग है वो सभी जीवन के किसी ना किसी मोड़ पर खोये-खोये से रहे हुए होते है और सायद तभी वो साकार है! सूनापन तो ज़न्म से लेकर मृत्यु तक का एक सफर है, ज़ब हम पैदा होते है या फिर.....!

               बस ज़रुरत है की दोस देना छोडो और खो कर खुद को पहेचानो! अपने जीवन के मूल रहस्य को खोजो और खो जाओ उसे पाने के लिए, सफलता एक ना एक दिन तुम्हारे कदम अवश्य ही चूमेगी!

     ह्म्म्म्म्म्म्म.............तो आप भी खो जाए इस काल्पनिक लेकिन सत्य व्यंग्य मे!

    हाँ,         Remember again,

" God helps those who help themselves".                   
                  !! happy reading and thanks to your patience!!

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